जब प्रतिभा की बात आती है तो उम्र महज एक संख्या होती है। इसका सटीक उदाहरण सभी को आश्चर्यचकित कर दिया। ऐसी उल्लेखनीय प्रतिभा को दिल से सलाम चाहिए।
अभिजीता गुप्ता प्रसिद्ध भारतीय कवि स्वर्गीय मैथिली शरण गुप्त की पोती हैं। अपने परिवार में गहरे साहित्यिक प्रभाव के कारण, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि अभिजीता ने इतनी कम उम्र में लेखन की दुनिया में कदम रखा।
अपनी कल्पना और लेखन कौशल का प्रदर्शन करते हुए, अपनी पहली पुस्तक लिखने में उन्हें तीन महीने लगे। उनकी किताब ने सभी को प्रभावित किया और साबित कर दिया कि सच्ची प्रतिभा उम्र की मोहताज नहीं होती।
अभिजीता गुप्ता का नाम अब सबसे कम उम्र की लेखिका के रूप में एशिया बुक ऑफ रिकॉर्ड्स और इंटरनेशनल बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में दर्ज हो गया है। यह उपलब्धि न सिर्फ अभिजिता के लिए बल्कि पूरे देश के लिए गर्व की बात है।
उनकी सफलता में उनके परिवार ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनके माता-पिता और रिश्तेदारों ने उन्हें हमेशा प्रोत्साहित और प्रेरित किया। यह उनका समर्थन और प्रेरणा ही है जिसने अभिजिता को इतनी कम उम्र में इतनी बड़ी ऊंचाइयां हासिल करने में मदद की।
अभिजीता गुप्ता की कहानी हर उस बच्चे और युवा के लिए प्रेरणा है जो अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने का सपना देखते हैं। उनकी कड़ी मेहनत, समर्पण और आत्मविश्वास यह साबित करते हैं कि आपकी उम्र कोई भी हो, दृढ़ संकल्प के साथ आप कोई भी लक्ष्य हासिल कर सकते हैं
वह सूर्य ग्रहण के दौरान पैदा हुई थी, और जन्म के समय उसका सिर असामान्य रूप से छोटा था, साथ ही होंठ और नाक भी थोड़े अलग थे गांव के लोग उसे चिढ़ाते थे, उसे “पिची” (पागल) और “कोठी” (बंदर) कहकर ताने मारते थे। वह घर आकर रोने लगती थी, उनके क्रूर शब्दों से टूट जाती थी। वह तो बस एक बच्ची थी, और हम उसे समझाने की पूरी कोशिश करते थे, लेकिन उसका दुख देखकर हमारा दिल टूट जाता था। लोग यहां तक कहने लगे थे कि हमें उसे अनाथालय भेज देना चाहिए। लेकिन आज, जब हम उसे दूर देश में पैरालंपिक में मेडल जीतते हुए देखते हैं, तो यह साबित होता है कि वह वास्तव में एक खास लड़की है… यह कहानी है दीप्ति जीवनजी की, जिसे उनकी मां जीवनजी ने साझा किया।
पेरिस पैरालिंपिक 2024 ने दुनिया को दिखा दिया है कि अगर मजबूत इच्छाशक्ति हो, तो कुछ भी हासिल किया जा सकता है। तमाम चुनौतियों के बावजूद, एथलीटों ने सफलता की ऊंचाइयों को छुआ है। दीप्ति जीवनजी उन प्रेरणादायी एथलीटों में से एक हैं, जिनका सफर चुनौतियों से भरा रहा, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी। पेरिस पैरालिंपिक 2024 में, दीप्ति जीवनजी ने महिलाओं की 400 मीटर T20 स्पर्धा में कांस्य पदक जीतकर भारत के लिए 16वां पदक हासिल किया। इस पैरा-एथलीट ने यह दौड़ 55.82 सेकंड में पूरी की।
इससे पहले, दीप्ति ने जापान के कोबे में विश्व एथलेटिक्स पैरा चैंपियनशिप में भारत के लिए पहला स्वर्ण पदक जीता था। वह आंध्र प्रदेश के वारंगल जिले के कल्लेडा गांव की रहने वाली हैं। उनके माता-पिता, जीवनजी यादगिरी और जीवनजी धनलक्ष्मी, ने याद किया कि कैसे उनकी बेटी को बड़े होने के दौरान ताने सहने पड़े। इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, दीप्ति बौद्धिक विकलांगता के साथ पैदा हुई थीं, और उनका सफलता तक का सफर बेहद असाधारण रहा है
पारंपरिक लोकज्ञान का एक ऐसा पेड़ जिसके नीचे खड़े हो पाना मुश्किल है। किंतु यह अनाजों के प्राकृतिक भंडारण में बहुत काम का है। कीड़े दूर भागते हैं इसकी गंध से।
कुम्भी या कुम्हि मध्यप्रदेश के जंगलों एवम खेत खलिहानों में पाया जाने वाला एक छोटे आकार का पतझड़ वाला पेड़ है। इसके फूल देखने मे बहुत आकर्षक दिखाई देते हैं। ऐसा माना जाता था कि इसके पुष्प कभी-कभी या एक दो वर्ष के अंतराल से आते हैं और इनके फूलों या फलों से विशेष प्रकार की गंध आती है, अतः ग्रामीण क्षेत्रों में कुम्हि से जुड़ी एक कहावत प्रचलित है, जो पढ़ने में थोड़ी असभ्य सी लगती है, लेकिन इनमें कोई बदलाव करके इसे सभ्य बनने का मेरा कोई इरादा नहीं है।
ठंड के मौसम में सूखे मेवे की मांग स्वतः ही बढ़ जाती है, पर मखाना की मांग दिन प्रतिदिन कम पड़ती जा रही है….
जिसका मुख्य कारण मखाना के गुणकारी पक्ष को न जानना लगता है….
मखाना की प्रजाति हुबहु कमल से मिलती जुलती है,अंतर इतना की मखाना के पौधे बहुत #कांटेदारहोते हैं ,
इतने कंटीले कि उस जलाशय में कोई जानवर भी पानी पीने के लिए नहीं जाता है ….
यह तालाब,नदी,और खेतो में पानी भरकर भी पैदा किया जा सकता है
इसकी खेती मुख्य रूप से मिथिलांचल में होती है…
बिहार मिथिलांचल की पहचान के बारे में कहा जाता है- ‘पग-पग पोखरि माछ मखान’ यानी इस क्षेत्र की पहचान पोखर (तालाब), मछली और मखाना से जुड़ी हुई है।
बिहार के दरभंगा, मधुबनी, पूर्णिया, किशनगंज, अररिया सहित 10 जिलों में मखाना की खेती होती है…..
देश में बिहार के अलावा असम, पश्चिम बंगाल और मणिपुर में भी मखाने का उत्पादन होता है,
मगर देशभर में मखाने के कुल उत्पादन में बिहार की हिस्सेदारी 80 प्रतिशत है……
मखाना को देवताओं का भोजन कहा गया है ….जन्म हो या मृत्यु,शादी हो या गोदभराई…..व्रत उपवास हो या यज्ञ हवन मखाने का हर जगह विशेष महत्व रहता है …..
इसे आर्गेनिक #हर्बल भी कहते हैं …..क्योंकि यह बिना किसी रासायनिक खाद या कीटनाशी के उपयोग के उगाया जाता है।
अधिकांशतः ताकत की दवाइयाँ मखाने के योग से बनायी जाती हैं,
मखाने से #अरारोट भी बनता है. ….मखाना बनाने के लिए इसके बीजों को फल से अलग कर धूप में सुखाते हैं. ….
बीजों को बड़े-बड़े लोहे के कढ़ावों में सेंका जाता है. …कढ़ाव में सिंक रहे बीजों को 5-7 की संख्या में हाथ से उठा कर ठोस जगह पर रख कर लकड़ी के हथोड़ो से पीटा जाता है. ….
इस तरह गर्म बीजों का कड़क खोल तेजी से फटता है और बीज फटकर लाई (मखाना) बन जाता है.
जितने बीजों को सेका जाता है…..उनमें से केवल एक तिहाई ही मखाना बनते हैं….।
औषधीय उपयोग
#किडनी को मजबूत बनाये ….. मखाने का सेवन किडनी और दिल की सेहत के लिए फायदेमंद है…
डाइबिटीज रोगी इसका सेवन कर लाभ पा सकते है…
मखाना कैल्शियम से भरपूर होता है इसलिए जोड़ों के दर्द, विशेषकर #अर्थराइटिस के मरीजों के लिए इसका सेवन काफी फायदेमंद होता है….
मखाने के सेवन से तनाव कम होता है और नींद अच्छी आती है। रात में सोते समय दूध के साथ मखाने का सेवन करने से #नींद न आने की समस्या दूर हो जाती है…..
मखानों का नियमित सेवन करने से शरीर की कमजोरी दूर होती है और हमारा शरीर सेहतमंद रहता है…..
मखाना शरीर के अंग सुन्न होने से बचाता है तथा घुटनों और कमर में दर्द पैदा होने से रोकता है…..
#गर्भवती महिलाओं और प्रसूति के बाद कमजोरी महसूस करने वाली महिलाओं को मखाना खाना चाहिये…..
मखाना को दूध में मिलाकर खाने से दाह (जलन) में आराम मिलता है।
#नपुंसकता …मखाने में जो प्रोटीन,कार्बोहाइड्रेड, फैट, मिनरल और फॉस्फोरस आदि पौष्टिक तत्व होते हैं वे कामोत्तेजना को बढ़ाने का काम करते हैं।
साथ ही शुक्राणुओं के क्वालिटी को बेहतर बनाने के साथ-साथ उसकी संख्या को भी बढ़ाने में सहायता करते हैं…।
कई लोग आज भी शक्तिवर्धक के रूप में विदेशी प्रोडक्ट को चुनते है
वही अमेरिकन हर्बल फ्रुड प्रोडक्ट एशोसिएशन ने मखाना को क्लास वन का फूड प्रोडक्ट घोषित किया हुआ हैं…।
लोथल, गुजरात से उत्खनित यह शतरंज बोर्ड मानव जाति के इतिहास में ज्ञात सबसे पुराना शतरंज बोर्ड है। यह सिंधु घाटी सभ्यता से संबंधित है और लगभग 2300 ईसा पूर्व का है। इस बोर्ड का उपयोग शतरंज के शुरुआती रूप को खेलने के लिए किया जाता था। यह लोथल के काल I से संबंधित है। शतरंज को संस्कृत साहित्य में “चतुरंग” (शाब्दिक अर्थ है घुड़सवार सेना (शूरवीर), पैदल सेना (प्यादे), हाथी (बिशप) और रथ (रूक) के “चार विभाग” के रूप में जाना जाता है। इसे फ़ारसी में “शतरंज” के रूप में उधार लिया गया था और फिर पश्चिम और अंग्रेजी में “शतरंज” के रूप में जाना जाता है। इस बोर्ड की खोज एक स्वतंत्र इतालवी टीम ने की थी। कोई आश्चर्य करता है कि ऐसे खजाने हमेशा एएसआई द्वारा “अनदेखे” कैसे रह जाते हैं। #history
नालंदा यूनिवर्सिटी – अभी तक के ज्ञात इतिहास की सबसे महान यूनिवर्सिटी है ।
आज भले ही भारत शिक्षा के मामले में 191 देशों की लिस्ट में 145वें नम्बर पर हो लेकिन कभी यहीं भारत दुनियाँ के लिए ज्ञान का स्रोत हुआ करता था। आज सैकड़ो छात्रों पर केवल एक अध्यापक उपलब्ध होते हैं वहीं हजारों वर्ष पहले इस विश्वविद्यालय के वैभव के दिनों में इसमें 10,000 से अधिक छात्र और 2,000 शिक्षक शामिल थे यानी कि केवल 5 छात्रों पर एक अध्यापक ..। नालंदा में आठ अलग-अलग परिसर और 10 मंदिर थे, साथ ही कई अन्य मेडिटेशन हॉल और क्लासरूम थे। यहाँ एक पुस्तकालय 9 मंजिला इमारत में स्थित था, जिसमें 90 लाख पांडुलिपियों सहित लाखों किताबें रखी हुई थीं । यूनिवर्सिटी में सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, ईरान, ग्रीस, मंगोलिया समेत कई दूसरे देशो के स्टूडेंट्स भी पढ़ाई के लिए आते थे। और सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि उस दौर में यहां लिटरेचर, एस्ट्रोलॉजी, साइकोलॉजी, लॉ, एस्ट्रोनॉमी, साइंस, वारफेयर, इतिहास, मैथ्स, आर्किटेक्टर, भाषा विज्ञानं, इकोनॉमिक, मेडिसिन समेत कई विषय पढ़ाएं जाते थे।
इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी । केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें व्याख्यान हुआ करते थे। मठ एक से अधिक मंजिल के होते थे प्रत्येक मठ के आँगन में एक कुआँ बना था। आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्ष के अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा झीलें भी थी। इस यूनिवर्सटी में देश विदेश से पढ़ने वाले छात्रों के लिए छात्रावास की सुविधा भी थी ।
यूनिवर्सिटी में प्रवेश परीक्षा इतनी कठिन होती थी की केवल विलक्षण प्रतिभाशाली विद्यार्थी ही प्रवेश पा सकते थे। यहां आज के विश्विद्यालयों की तरह छात्रों का अपना संघ होता था वे स्वयं इसकी व्यवस्था तथा चुनाव करते थे। छात्रों को किसी प्रकार की आर्थिक चिंता न थी। उनके लिए शिक्षा, भोजन, वस्त्र औषधि और उपचार सभी निःशुल्क थे। राज्य की ओर से विश्वविद्यालय को दो सौ गाँव दान में मिले थे, जिनसे प्राप्त आय और अनाज से उसका खर्च चलता था।
लगभग 800 सालों तक अस्तित्व में रहने के बाद इस विश्वविद्यालय को तहस नहस कर दिया ।
महाराष्ट्र के माथेरान और पनवेल के बीच में बसे इस कलावंती दुर्ग को प्रबलगढ़ दुर्ग के नाम से भी जाना जाता है, 2300 फीट ऊंची खड़ी पहाड़ी पर बने इस क़िले तक बहुत कम लोग ही पहुंच पाते हैं, इसका कारण है यहां का बेहद कठिन रास्ता, इस किले तक पहुंचने के लिए रॉक-कट की पहाड़ियों और नुकीली सीढ़ियों से होकर गुजरना होता है, साइड से पकड़ने के लिए न तो कोई बाउंड्री है और न ही कोई रस्सी, यानी अगर सीढ़ियां चढ़ते हुए आपका जरा सा पैर फिसला, तो आप सीधे गहरी खाई में जाकर गिरेंगे शाम होने से पहले फैल जाता है सन्नाटा हैरानी की बात ये है कि इतना कठिन रास्ता होने के बावजूद तमाम टूरिस्ट इस किले की चढ़ाई करने के लिए आते हैं, लेकिन कुछ ही लोग सफलतापूर्वक इसे पूरा चढ़ पाते हैं, अंधेरा होने से पहले ही लोग इस किले को पूरी तरह से खाली कर देते हैं क्योंकि यहां न तो बिजली की व्यवस्था है और न ही पानी की, ऐसे में अंधेरे में जरा सी चूक से लोगों की जान जा सकती है